कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, May 12, 2010

बहुत याद आएंगे सरोद के उस्ताद

अली अकबर खान चाहते  थे—राजस्थानी संगीत को मिले ऊंचाई 




सरोद आज ख़ामोश है। मन के तार छेड़ने वाले इस साज़ से आवाज़ आए भी तो कैसे...इसके बादशाह उस्ताद अली अकबर खान मौसिक़ी का संसार और ये फ़ानी दुनिया छोड़कर फ़ना हो गए हैं। अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को शहर में बीते शुक्रवार, 19 जून को गुर्दे (किडनी) की बीमारी से चार महीने तक जूझने के बाद खान साहब ने 88 साल की उम्र में आखिरी सांस ली और सरगम के संसार में कभी न भरने वाला एक और शून्य पैदा हो गया।

सपनों से सजा  हिंदी सिनेमा हो या फिर विश्व संगीत जगत...हर जगह सरोद की धुनों से जीवन की उमंगें पैदा करने वाले उस्ताद को सिर्फ इसलिए नहीं याद किया जाएगा कि उन्होंने दुनिया भर में भारतीय सरगम की धाक जमाई। उस्ताद को संगीत के शौकीन इसलिए भी भुला नहीं सकते क्योंकि खान साहब ने अपनी रचनात्मकता, सूझबूझ, हिम्मत और मौलिक सोच से संगीत को नई उर्जा भी बख़्शी है।
हिंदी फ़िल्मों से लेकर विश्व पटल पर सरोद की धुन को महत्व दिलाने वाले उस्ताद अली अकबर खान का नाम नई पीढ़ी भले न जाने, लेकिन वो कितनी बड़ी हस्ती थे, इसका अंदाज़ा मशहूर वॉयलिनिस्ट येहूदी मेनूइन के इस विशेषण से लगाया जा सकता है—खान साहब दुनिया के सबसे बड़े संगीतकार हैं।

शास्त्रीय संगीत संसार में पितामह माने जाने वाले बाबा अलाउद्दीन खान साहब के पुत्र अली अकबर खान को देश से कहीं ज़्यादा विदेशों में शोहरत और सम्मान मिला। 1965 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित खान साहब 80 साल की उम्र में भी किस कदर जीवंत थे, इसका अंदाज़ा कोलकाता में आयोजित उनके संगीत कार्यक्रम के एक श्रोता की टिप्पणी से लगाया जा सकता है—अली अकबर साहब का सरोदवादन अभी कुछ वर्ष पहले कोलकाता में हुए एक शानदार कार्यक्रम में सुना था। उन्हें सहारा देकर लाया गया था पर एक बार जब उन्होंने सरोद छेड़ दिया तो उम्र का कोई प्रभाव नहीं वहां नहीं था और लोग घंटों मंत्रमुग्ध बैठे रहे। उन्होंने एक कम्पोज़ीशन बजाने के पहले कहा कि यह कम्पोजीशन बाबा को, पिता बाबा अलाउद्दीन खां को बहुत प्रिय थी।

एक ब्लॉग पर प्रकाशित इस टिप्पणी से साफतौर पर पता चलता है कि संगीत  को लेकर ऐसा ज़ुनून और ज़िद हो, तो उम्र भी हौसले के आगे  घुटने टेक देती है।

14 अप्रैल, 1922 को  कोमिला ज़िले (अब बांग्लादेश  में) के शिबपुर गांव  में बाबा अलाउद्दीन खान  और मदीना बेगम के घर  पैदा हुए अली अकबर खान  ने उस उम्र से संगीत  सीखना शुरू कर दिया  था, जब बच्चे ठीक से  बोल भी नहीं पाते...महज  दो साल के थे अली, जब  उन्होंने गायन-वादन की  तालीम अपने पिता से  ही लेनी शुरू कर दी।  13 साल के अली ने पहली  बार मंच पर संगीत कार्यक्रम  दिया और 22 वर्ष का होने  तक वो जोधपुर राज्य  के दरबारी संगीतकार बन  चुके थे।

भारतीय संगीत  को विश्व पटल पर स्थापित  करने के लिए उस्ताद ने दुनिया के अलग-अलग शहरों की यात्राएं कीं। सरोद की धुन उनके साथ-साथ बढ़ती रही और सबने माना—हिंदुस्तान की मौसिक़ी का कोई जवाब नहीं। 1955 में उन्होंने अमेरिका में टीवी कार्यक्रम पेश किया और ऐसा करने वाले पहले संगीतकार बने।

विदेशों में  लोक संगीत का झंडा फहराकर भारत लौटे खान साहब ने 1956 में  कोलकाता में अपने नाम  से संगीत महाविद्यालय की नींव रखी और दो साल बाद  ही बर्कले, कैलिफोर्निया, अमेरिका  में भी एक म्यूजिक स्कूल  शुरू कर दिया। 1968 में ये स्कूल  सान रफ़ेल, कैलिफ़ोर्निया  में स्थानांतरित हो गया  और इसी साल अली अकबर खान भी अमेरिका में ही बस गए।

परदेस में संगीत के दीवानों ने उन्हें भरपूर प्यार दिया। ईनामों की बौछार हरदम खान साहब के दामन में होती रही। स्विट्जरलैंड में स्कूल कायम करने के साथ खान साहब को 1997 में अमेरिका की मशहूर नेशनल हैरिटेज फ़ेलोशिप से नवाजा गया। इससे भी पहले 1991 में वो मैकआर्थर जीनियस ग्रांट से सम्मानित किए गए।

इस बीच खान साहब लगातार भारत आते रहे। उन्होंने अपने बहनोई और मशहूर सितार वादक रवि शंकर और वायलिन के अमर कलाकार एल सुब्रह्मण्यम भारती के साथ कई जुगलबंदियां भी दीं। संगीत की परंपरा को तकरीबन दो सौ म्यूजिक स्कूलों के ज़रिए जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश को जैसे उन्होंने अपने जीवन का अभियान ही बना लिया था।

तन भले ही सात समंदर पार था पर खान साहब का मन हरदम भारत में बसता था। राजस्थान और यहां के लोक संगीत से उन्हें बहुत प्यार था। कई बार चिंता से भरकर उन्होंने कहा—बंगाल में रवींद्र संगीत और कर्नाटक में कर्नाटक संगीत की तरह राजस्थान की संगीत परंपरा समृद्ध क्यों नहीं रह पा रही है। खान साहब चाहते थे कि प्रेम दीवानी मीरा के पदों को हर आम आदमी तक राजस्थानी संगीत में सजाकर पहुंचाया जाए। खान साहब आज नहीं हैं...उनका सरोद भी चुप हो चुका है पर उनकी आरज़ू अभी बाकी है—राजस्थानी संगीत जगत पर हावी उपेक्षा का रेगिस्तान कभी सरकारी सहायता के मानसून से सराबोर हो सकेगा?


(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख)

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सरोद के जादूगर को नमन!

Pratibha Katiyar said...

bahut sundar!

Alpana Verma said...

उन्हें हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि.