कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, May 30, 2010

फिर क्या बोलें, क्यों बोलें ये लब


बताना ही क्या
कि
पहली बारिश के बाद
किस तरह मन का पोर-पोर
सहलाती है
माटी से उठती महक.
कहना ही क्या
कि 
मधुयामिनी में
प्रिय प्रतीक्षा के अंतराल के बाद
प्रेमाष्पद से मिलने का हर्ष क्या होता है...
कुछ लोग पूछते हैं...
बारिश में भीगते हुए,
छुप-छुपकर सिर्फ देखना...
ये क्या है...
ये बेवकूफ़ी ही है...
समझदार ये सब नहीं किया करते...
पहली बार प्रिय की पाती पढ़कर
जिस तरह होता है रोम स्फुरण
भावोद्रेक करा देता है कंठावरोध
वैसे ही
साक्षी है क्रूर समय...
जिसका मारा मैं...
प्रतीक्षा की एक-एक सांस का बोझ गिना है...
कहता हूं गवाह बनाकर 
काल चक्र को...
जैसा अमावस के बाद
सुख मिलता है धरा को...
चंद्र दर्शन का,
वैसे ही--
बरखा में भीगे तुम
दिखते हो,
तब मन मयूर करने लगता है नर्तन...
क्यों बोलें ये लब...
जब हृदय की धड़कनें तक जुड़ी हैं..
प्रिय स्मरण के क्रम से...
तुम्हारा आगमन और बिछोह ही
बढ़ाता-घटाता है
मेरे संवेदी क्रम को...
और मन कनबतियां करता रहता है
आसपास की बयार से...
फिर क्या बोलें, क्यों बोलें ये लब

रात के 4.25 बजे, गोंडा, सितंबर 1997

4 comments:

मिलकर रहिए said...

मेरे नए ब्‍लोग पर मेरी नई कविता शरीर के उभार पर तेरी आंख http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_30.html और पोस्‍ट पर दीजिए सर, अपनी प्रतिक्रिया।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

और मन कनबतियां करता रहता हैआसपास की बयार से...फिर क्या बोलें, क्यों बोलें ये लब

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

Udan Tashtari said...

और मन कनबतियां करता रहता है
आसपास की बयार से...
फिर क्या बोलें, क्यों बोलें ये लब


-बहुत सुन्दर!!

Parul kanani said...

sundar abhivyakti!!