कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, March 11, 2011

अहा! प्रेम...

प्रेम में बिताए गए समय और उस याद से रची-बसी कविताओं को भास्कर समूह की उल्लेखनीय पत्रिका अहा ज़िंदगी में सेंटर स्प्रेड में, दो पन्नों का विस्तार मिला है...मार्च अंक में सचित्र परिचय और कविताएं छपना अच्छा लगा। पन्नों की ये झलक ज़रा पुरानी है, यानी छपे हुए से काफी अलग है...

ये सब कविताएं चौराहे पर पहले से उपलब्ध हैं। लिंक रहे यहां...

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